- जैविक खेती ने मिर्ची की बुआई को किया पुनर्जीवित, 4 साल में पुनः 500 हैक्टेयर में होने लगी है पैदावार
- 70,000 हैक्टेयर में बुवाई 2000 से पहले
- 2500 रुपए प्रति मण में बिक रही मिर्च
- 50 मण पैदावार मिल रही प्रति बीघा
- 500 हैक्टेयर में है बुवाई
- 70 हैक्टेयर में सिमट गई बुवाई 2016 तक
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बालरवा और बड़ा कोटेचा क्षेत्र के युवा व प्रगतिशील किसानों ने की वापसी की शुरुआत
संजीवनी साबित हो रही देसी खाद और गौमूत्र, फिर बढ़ने लगी पैदावार
Bap News : जेठमल जैन / सत्येंद्रसिंह राजपुरोहित
16 साल पहले दुनिया भर में तिंवरी और मथानिया की मिर्ची इतनी खास थी कि लोग दूर-दूर से यहां खरीदने आते थे। खेतों में सूखती हुई लाल सुर्ख मिर्च की छोटी छोटी ढेरियां देश विदेश के फोटोग्राफरों की भी पहली पसंद रही है। क्योंकि सुर्ख लाल मिर्च की तस्वीरें देश विदेश के बड़े-बड़े फोटोग्राफी अवॉर्ड्स में भी विजेता फोटो के रूप में शामिल की जाती है।
पहले बीघे में 100 मण पैदावार, अब 50 मण
रोग से नष्ट होने से पूर्व 20 साल पहले तक एक बीघा में 100 मण गीली लाल मिर्च की पैदावार होती थी। इसके बाद रोग लगने से यह पैदावार शून्य तक पहुंच गई थी। लेकिन अब फिर परंपरागत खेती से प्रति बीघा 50 से 70 मण मिर्च की पैदावार हो रही है।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1970 से 2000 तक तिंवरी-मथानिया की मिर्च पूरे देश ही नहीं विदेशों में भी अपनी विशेष पहचान रखती थी। बरसों तक इसकी बाजार में भी अच्छी मांग रही, लेकिन 2001 से पैदावार गिरनी शुरू हुई और धीरे-धीरे किसानों ने मिर्ची की बुवाई ही बंद कर दी। स्थिति यह है कि बाजार में तिंवरी-मथानिया की बताकर मध्यप्रदेश की मिर्च बेची जाने लगी।
इस कारण बंद हुई बुवाई
90 के दशक में रासायनिक खाद व दवा के अंधाधुंध उपयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति घट गई और पौधों की रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आने के चलते मिर्च की फसल में माथा बंदी ओर डोला रोग लगना शुरू हो गया। इस रोग से फसल नष्ट होने लगी। मारवाड़ में इस बीमारी का काेई विशेषज्ञ भी नहीं था। कई प्रकार की दवाइयों के छिड़काव के बावजूद उनका उक्त रोग पर असर नहीं हुआ। कृषि विभाग के प्रयास भी नाकाम रहे। फिर तो लागत निकालना भी मुश्किल हो गई। धीरे-धीरे 2010 तक किसानों ने मिर्च की बुवाई से ही हाथ खींच लिए।
तीखेपन के साथ जायका भी
क्षेत्र के लाल मिर्च की विशेषता हैं कि यह सुर्ख लाल कलर व तीखेपन के साथ स्वाद के लिए भी जानी जाती हैं। इस मिर्च का उपयोग विभिन्न फास्ट फूड रेसिपी सहित अन्य खाद्य व्यंजनों में जायका बढ़ाने के लिए किया जा रहा हैं।
बड़ा कोटेचा के किसान मालाराम माली बताते हैं कि 20 साल पहले तक हम केवल गाय के गोबर बकरी के अपशिष्ट पदार्थ से बनी खाद ही जमीन में डालते थे।अब फिर उसी तरीके से खेती कर रहे है। चौबाई से पहले जमीन पर ट्रैक्टर से जोताई करके प्रति बीघा 2 ट्रॉली सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग करते है। निराई-गुड़ाई के साथ खाद-गौमूत्र से सड़े पानी से सिंचाई करते है। मारवाड़ की कहावत ‘सौ दवा, एक हवा’ इस फसल पर लागू होती है। रोग से बचाने के लिए पौधों की दूरी कतार से कतार ढाई फिट रखते है। इससे पर्याप्त धूप हवा मिलती है। अब पैदावार भी अच्छी मिल रही है।