प्रताप सिंह टेपू रेगिस्तान की रेतीली धरा बहुत समृद्ध है। यहाँ फो...
प्रताप सिंह टेपू
रेगिस्तान की रेतीली धरा बहुत समृद्ध है। यहाँ फोग, खीपों की हरित वनस्पति, केर,खेजडी़ और आक की निराली हरियाली, कुमट, रोहिड़े व जाळ का फैलाव अनूठे नैसर्गिक सौन्दर्य की चुनरीया ओढे़ मरूथल को अभिराम बनाता है।
इसी मरूस्थल में केर केड़ता ,फोग लांघता, खींप खाता, रोहिडे़ की छाँव में अंगडा़ई लेता ऊँट यहाँ की बेजोड़ और नामदार समृद्धि का परिचायक है।
तपते रेगिस्तान में, धूल उडा़ती आँधी और तपिश भरी लू के थपेडो़ं में ठेठ देहाती ढा़णी के आगे ऊँट का बँधा होना अमीरी का मजबूत संकेत रहा है। आमजन में यह प्रबल धारणा रही कि ऊँट वाला घर मददगार, समृद्ध और जागरूक होता।
धोरों की दुर्गम चढा़ई, पाँव धँसाते टीलों को सहजता से पार करता ऊँट यहाँ रेगिस्तान का जहाज है। इसके शरीर की बनावटी विशेषताओं से विज्ञान आबाद रहा है। एक सरल, विश्वसनीय और कमाऊ साथी की भूमिका में वर्षों से साथी बनकर रहा है।
पानी की 'पखालें' लाकर , छकड़ों पर पानी की 'टंकी' भर दुरूह रास्तों को पार कर प्यास बुझाई, हळों को खींंचकर कृषि को उन्नत कर अन्नदाता का सहयोगी बना, खेतों से घास और फसलों के 'गेडे़' करके साथी बना, बीन्दराजा के मुजरे घेरकर खुशियों का वाहक बना, धीया को सीख (विदाई) में सफेद आभूसण ओढ़ाए मोरूडा़ बोलाता बीरा बना। देश की सीमाओं को सुरक्षित रखने बलिपथ के पथिकों का हमराह बना। खेल, प्रतियोगिताओं और मनोरंजन में कौशल व कुशलता का सखा-सा बना... इतनी विशेषताओं को अपने में समेटे यह ऊँट हमेशा से विशिष्ट रहा।
नाक में सुन्दर नकेल, मुँह पर आकर्षक 'मोरखा', गले में धवलवर्णी कबडियों की माल़ा, लोकगीतों का गोरबंद और रंग-रंगीला कमरबन्द पट्टा, सौन्दर्य निरखाती गूगड़बेल, छोटे टोकरी बजाते गोडिये, पीतल का पीतलिया पिलाण, मजबूत सतरंगी 'मोहरी' पैरों में झमकोले देते लच्छे ... आह्हा..! श्रृँगार कर जब 'ओठी' ऊँट पर बैठता तो नाज का नजारा ही अनुपम होता। दाहिना ' माकडा़' ( पूँछ को दाहिनी तरफ से मोड़कर बाँधना) बंधा होता तो परिचय स्वत: होता कि इसका 'ओठी असवार' कोई राजपूत है। धोरों पर दौड़ता ऊँट 'धर कूंचा भाई, धर मँझला' करता ,मग की कठिनाई को कुचलता आगे बढ़ता जाता।
लोक-साहित्य और लोक-गीतों में करियो, ओठ, टोडियो, सांढणकी जैसे गीत आज मरूभूमि में इस रेगिस्तानी जहाज के महत्व, भूमिका और सहचर को इंगित करते हैं..। ये गीत आज भी अपनी स्वर-लहरी में मरूथल के रंग-ढंग के इतिहास को बताते हैं।
सगाई के समय लाडेसर धीयल अपने पिताजी को एक अनुरोध करती है कि----
:- बाबलीया म्हनै उण घर दीजै जिण घर सांढणीयां होय।
:- अळगा रा मौझें नैडा़ करै लाम्बी जिण री बिरखडि़यां।
हे, बाबुल..!! मुझे उसी घर देना, जिनके घर ऊँट-धन की प्रचुरता हो , ताकि दूरी की लम्बी विरह को नजदीक ला सके।
ऊँठ ऊंठाळी ब़है बागाळी उड पलीतों बग।
का चुड़ल़ै आळी रै पावणा का बेरियों ऊपर खग।
पानी की कमी में जीवनयापन , सूखे और रूखे आहार से जीवन पालन , मालिक के प्रति अपनत्व और एकनिष्ठ रहना, कम जरूरतों में अत्यधिक लाभ देना , अभावों और संकट-काल में सच्चे हितैषी की भूमिका निभाना, विश्वास और सहयोग की सहचरी निभाने का समर्पण इसकी जन्मजात विशेषता रही है।
ऊँटों की कतारें "टोळे" अनुशासन और परस्पर साथ का अनूठा उदाहरण है। न्यूनतम आवश्यकताओं में जीवन को जीना और बलिष्ठ बने रहना अन्यत्र कहाँ मिलेगा..??
थार के हर घर की अमीरी यह ऊँट रहा है। शादी, खेती, जलापूर्ति, पशुपालन की यायावर बणजारी जिन्दगी, यातायात और मेलों की शोभा का मुख्य आधार और आकर्षण यही ऊँट रहा है।
सांढ़ ( ऊँटणी, सांढण) का दूध पौष्टिकता और निरोगता की औषधीय गुणों का खजाना है। छोटे शिशु करिये (कुरीया) के प्रति ममत्व और अपनत्व ममता का सबसे बडा़ उदाहरण है। थार का जीवन इनसे आबाद रहा है। आज भी इसका महत्व उतना ही,जितना बीते किसी कल में था..।
सच में, थार का जहाज हमारी विरासत है। संभावनाओं के सागर की लहर है। भविष्य में आवश्यकता निश्चित ही बढेगी।
आंकडो़ं की गिरावट चिन्ता व चिन्तन का गम्भीर विषय है। आज के दिन की सार्थकता भी यही कि हम भी इन्हें सहेजने में सहज भूमिका सुनिश्चित करें।