आर्टिकल : प्रताप सिंह टेपू मेरे मरूथली मन की यादों...!! मन के धोरों में उड़ता मखमली रेत का हेत और हेज याद करो। याद करो भीषण उष्ण तपिश, पा...
आर्टिकल : प्रताप सिंह टेपू
मेरे मरूथली मन की यादों...!! मन के धोरों में उड़ता मखमली रेत का हेत और हेज याद करो। याद करो भीषण उष्ण तपिश, पाषाणों में खोए अनबोले स्नेह की मौन कहानी । मृगतृष्णा की वो लहरों-सी वो प्यासी प्यासें। खेजडी़ की छितराई छाया में जलते पैरों को बचाने की वह बालपनी जुगत याद कर..। जूती में गई तपती रेत, एक पैर पर खडे़ होकर, दूसरी पगरखी में से रेत निकालने की कला, लम्बी डगें भरकर तपते तावडे़ को छलने की बालसुलभ अटकलें..। मेरे थार पर बादलों की नाराजगी, हवा का रूखापन, छाया का अभाव भरा अपनापन... पीलू व ढालू, सांगरी और खोखों को खोजते खोजी तन..., पसीने और जलते पैरों के बूते प्यास और थकान को हराते मन...और यादों की गठरी उठाए रेगिस्तानी जीवन , जीवट व जीवन्त की गाथा गाता हुआ ....थार के थाह को पाने की, भीतर समाने की ललक पाले...हर्रहर्रह्र्र्र...हुम्म्म्म्म करता हुआ जाल़ों में छाले सहलाता धोरों से ढ़ल़ रहा है।
मेरी मरूभूमि की चुनरी..., हाँ चुनरी..! बाढ़ाणा और जैसाण से बीकाणा के धोरों तक, जोधाणा की थळियों से नागौर व झुंझुनूं की झंझाहन करती बाळू ब़ेकळ ..तक एक ही चुनरी...!!
वह चुनरी भी निराली, सांझ को ओढ़नी ओढे़ पूरे थार को रूपवान सौन्दर्य में ढाल देती।
वह चुनरी, वह ओढ़नी आँधी..।मारवाड़ में उनाळै का सलौना आगाज़। रात का बेळू (रात्रिभोज) होने तक अतिथि बनकर सहभागी बनती...। उतराद (उत्तर दिशा) से उमड़ती यह आँधी सुहानी लगती। अमूमन, इसके बाद बारिश आती ।
दक्खण (दक्षिण दिशा) से आने वाली काली-पीली आँधी तूफान के उफान का अहसास करवा जाती।
वीडियो के लिये करें क्लिक रेगिस्तान में उठता रेत का बवंडर
उड़ते धूल-कणों से लाड लडाती लाडेसर...!! नीरव निस्तब्ध रात्रि में सरसराहट करती, रजकण से स्नेह-स्पर्श पाती , मरूथल के मन को जीवट तन से सहलाती, रूखे और सूखे पेडो़ं की राग-पराग हसरतों को सांय-सांय में लपेटे लोरी गाती, दिशाओं का दशाओं से और वासों का कोसों से भेद मिटाती, ढ़लती मांझल़ रात से प्रभात के तारे तक सरसराती, गाती--नाचती--घूमती यह लाडेसर रानी आँधी अपना अपनापन जताती, हमारी बनकर रहती।
रूत को रूप देती घिरती कांठळ की सखी...!! चाहे मैं सभी को अच्छी न लगूँ। रूत पर मेरा आना बारिश और खुशहाली की यादों को बढा़ जाता है। घिरती कांठळ की मैं सखी। मेरी अपनी चाल से चलती हूँ मैं..। मैं चलती हूँ तो मारवाड़ में बजती हूँ...
आँधी बाजै..।
मेरी चाल तो देखो....
रोहिणी तपे मृग बाजै
आदर खादर...,
अणचितिया ही गाजै।
मैं बारिश की अग्रिम बधाई हूँ। मैं जनमानस की कामना की शुभकामना हूँ। खेतों की रेतों में समाए ममत्व का अपनत्व हूँ।मैं झकझोरती हूँ, जगाती हूँ और बदहाली से खुशहाली की ओर बढा़ती हूँ। घिरती घटाओं ,खिलती छटाओं और उमड़ती बदलियों की गति मैं हूँ... कहीं न कहीं आशाओं, उम्मीदों की प्रगति मैं हूँ। बरसता सावन मुझे एक स्नेहिल थपथपी है।
मुरझाई एक कोई अंवळू....!! वर्षों बीते तुम्हारी छाई छाया को देखे। रात को सोते तब साफ,सुबह तेरा आंलिगनबद्ध छाना, छर्रों-सा रज-कणों का अनोखा स्पर्श, वह सरसराहट... सांय-सांय का प्राकृतिक निनाद, खाने और पीने में मिश्रित मिश्रण, बरखा को तरसता मन और तेरा बजना...।
अब याद आती है। याद जब आँसूओं और बिछोह में उलझ जाए तो #अंवळू बन कर, मन को वैरागी बना, अथाह थार में मृगतृष्णा बनाकर, धोरों के भँवरों में अकेला छोड़ देती है।
शहरों की बेवफा कोलतारी प्यार ने , आँधी की याद को बरबस आँखों के रास्ते बहने को मजबूर कर दिया। तुम मेरे लिए महानगर की अन्धी अन्तहीन दौड़ व होड़ में उपेक्षित नहीं, अपेक्षित हो। धूल का गुबार नहीं, प्रेम का अम्बार हो। मौसम की कालिमा नहीं, सूखे मन के रेगिस्तान की लालिमा हो..। रेतीली मियाद नहीं, उल्लास भरे मन की याद हो।
मन मुरझा गया। आपसे बिछोह किसी अपने के दूर होने जैसा ही है। मन के मरूस्थल में,अन्तस्थ होकर बजो...बजना ही तो नाद है, नृत्य है...खुशी और खुशहाली है।