Article : वह कभी क्रान्ति नहीं करता। वह सपनों की भ्रान्ति नहीं पालता। अधिकारों की माँग को भूख के आगे विवशता से भूल जाता है। आराम-विश्राम उ...
समारोह, खुशियों का इनसे वास्ता नहीं। शरीर और अरमानों को धूनी बनाकर, उसी पर जलना-गलना ही ध्येय है।
हाँ.., मैं वही बात कर रहा हूँ, जिस पर आज सभी कर रहे हैं.. मजदूर दिवस..।
वर्षों में कभी-कभार ये मीठा भी खाते हैं। पूरे जीवन में चिकित्सा मुहैया न होने पर फटी राली और टूटी चारपाई पर सोते भी हैं। नये कपडे़, अच्छा घर, नौकरी की बधाइयाँ, गृह-प्रवेश, पार्टी-सभाएँ, नये जूते, ठण्डा पानी, मशीनरी हवा, सम्मान, प्रशंसाएँ, प्रसिद्धि, सफलता... भरी आँखों से असहाय होकर लिखना पड़ रहा है ... कि यह सब इनकी जिन्दगी में नहीं होता है।
हाँ, आजाद और लोकतांत्रिक देश में बसता है, सरकारें बनाता हैं, महल-बँगले बनाता है..दिखने वाले विकास की साक्षात क्रियान्वयन धुरी है। मन के अरमान और शरीर का सौन्दर्य खो चुके ये सिर्फ़ 'खपने' को बना है। तादाद में बहुत ज्यादा, लाभांश में सबसे कम यही है। आज इसका दिवस है। वर्ष में एक दिन कोई बोल-लिखकर मजदूर की महिमा को अभिमण्डित करेंगे। मजबूरी पर मजबूती कितनी ला पाए हैं...यह मजदूर भी जानता ही है।
ये पसीने से वय पार करता है। अभावों को पीढी़ दर पीढी़ ढो़ता हैं। परिश्रम की तूलिका से जीवन लिखता है, श्रम बून्दों से नियति नापता है। हँसना मना,रोना गुनाह... बढ़कर ही रात का बन्दोबस्त और सुबह की उम्मीद देखता है। उम्मीद भी क्या..!! आधा किलो आटा, तीन मिर्ची, पाव तेल, दो मुट्ठी दाल, एक टमाटर.. कुल पचास रूपये के मसाले और अलसाई हुई नींद के साथ अगली सुबह और सूरज की साखी में तन-तोड़ मेहनत..।आ
आज एक दिन का इनका मजदूर दिवस है।
मेरा शीर्षक चौंकाने वाला हो सकता है। मजदूर दिवस की जगह 'परिश्रम दिवस' गलत भी लग सकता है।
दरअसल, मजदूर जीवन की सच्चाई केवल परिश्रम है। परिश्रम के मुकाबले में बहुत कम पाने वाले मजदूर ही है। मजदूर को फावडे़-तगारी से बाँध देना बेमानी होगी।
बन्दूक-कलम वाला, किराये - नुकसान में बसर करने वाला भी मजदूर हो सकता है। परिश्रम जिसके जीवन का अथक यत्न है और पगार का आगार बहुत कमतर है...अभावों को झेलता, सपनों को बुझते देखता, कर्जों से दबकर शिक्षा को छूता, किश्तों की पुस्तों में उलझा हुआ, बढो़तरी को तरसता वह हर इन्सान भी मजबूर मजदूर ही है। इसलिए इसे व्यापक व्यास पर दिखाने को यह शीर्षक आया है।
मैं भी मजदूर हूँ। ऐसी एक बहुत बडी़ नफ़री है, तादाद है,जो जी- जान से जुटकर की बहुत बडा़ लाभांश वहीं छूटता देखती हैं,जहाँ से भरपूर भरपाई को जुटे और जुडे़ हैं।
यह दिवस तो हर उगते सूरज की साखी में मनाया जाता है।
वेदनाएँ, संवेदनाओं को कोसती है।
हाँ.., कोई समारोह बनाकर मनाता ही नहीं।
फिर भी,औपचारिक रूप से मेरी, मुझे बधाई और और आपकी आपको...।
प्रतापसिंह टेपू एडवोकेट की कलम से